“जनसुनवाई का असली मज़ा – सत्ता में अपने ही ‘वेटिंग लिस्ट’ में!”
सीधी। कहते हैं जनता का काम सरकार में जल्दी होता है, लेकिन ये बात शायद सांसद पुत्र पर लागू नहीं होती—क्योंकि यहां तो मामला उल्टा निकला। जनता लाइन में लगती है, यह तो सुना था… पर सत्ता पक्ष के सांसद का बेटा और बहू भी कलेक्टर चेंबर के बाहर उसी आम जनता के बीच सीमेंट की कुर्सियों पर बैठकर न्याय की प्रतीक्षा करेंगे—ये दृश्य तो प्रशासन की ‘लोकतांत्रिक समानता’ का नया पोस्टर बन गया।
सच मानिए, यह वह क्षण था जब लोकतंत्र ने कहा—“मैं सबको समान देखता हूं… बस कुछ को थोड़ा ज्यादा देर तक!”
कलेक्टर महोदय की घड़ी में शायद VIP मोड बंद था
मंगलवार की दोपहर, कलेक्टर चेंबर की हवा में एक अनोखी हलचल थी। कमरे के अंदर फाइलें चल रही थीं और बाहर—भाजपा सांसद के डॉक्टर पुत्र डॉ. अनूप मिश्रा और डॉक्टर पुत्रवधू कलेक्टर महोदय की ईश्वरीय बुलाहट का इंतजार करते हुए आम आदमी बनने का ‘लाइव डेमो’ दे रहे थे।
शायद कलेक्टर को यह एहसास कराने के लिए समय चाहिए था कि सरकार आपकी हो सकती है, मगर ‘टाइम’ कलेक्टर का ही चलता है…!
VIP भी आम आदमी बन सकता है, बशर्ते कलेक्टर व्यस्त हों
बुलावा आने में देरी क्या हुई—पूरा मामला तूल पकड़ गया। दफ्तर के गलियारे में चर्चा थी कि—
“लगता है, आज सच्चा ‘गुड गवर्नेंस’ देखने मिलेगा।”
अंततः कलेक्टर ने मुलाकात दी और मामला शांत हुआ। सिस्टम ने फिर साबित कर दिया कि—
“यहां हर नागरिक बराबर है, खासकर तब… जब तक पहचान न हो जाए!”
3 साल पुरानी फाइल और 2 लाख की फीस… पर सिस्टम की नींद नहीं टूटी
डॉ. अनूप मिश्रा की पीड़ा भी कुछ कम फिल्मी नहीं।
करीब 3 साल पहले एआरटी और सेरोगेसी क्लीनिक के लिए आवेदन दिया, 2 लाख जमा किए, निरीक्षण भी हो गया…
और फिर प्रशासन ने फाइल को वह सम्मान दिया जो अक्सर फाइलों को मिलता है—
“ध्यानपूर्वक रखकर हमेशा के लिए भूल जाना।”
3 साल बीत गए, पर कलेक्टर ऑफिस ने उनकी फाइल पर उतना ही ध्यान दिया जितना लोग सर्दी में सुबह की अलार्म पर देते हैं—सुनते हैं, पर उठते नहीं।
व्यंग्य का निष्कर्ष: ‘रामराज्य’ आता होगा… पर पहले नंबर बुलाएगा
इस घटना ने एक नई सीख दी—
सरकार चाहे अपनी हो, पद चाहे बड़ा हो,
पर यदि प्रशासन ने आपको जनसुनवाई मोड में डाल दिया,
तो फिर आप भी जनता हैं…
सीमेंट की कुर्सियों पर बैठकर इंतजार कीजिए—
“अगली बैठक में हो जाएगा” का वादा सुनने तक।







