Re. No. MP-47–0010301

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाने की मांग वाली याचिका खारिज की

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाने की मांग वाली याचिका खारिज की

नई दिल्ली, 25 नवंबर 2024 – सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवादी’ (Socialist) और ‘धर्मनिरपेक्ष’ (Secular) शब्दों को हटाने की मांग करने वाली याचिका खारिज कर दी। इस याचिका में दावा किया गया था कि प्रस्तावना में ये शब्द जोड़ना संसद के अधिकार क्षेत्र से बाहर था और संविधान संशोधन के तहत इसे शामिल करना अनुचित था।

42वें संशोधन पर उठाए गए सवाल

याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि 1976 में आपातकाल के दौरान किए गए 42वें संविधान संशोधन के जरिए इन शब्दों को जोड़कर प्रस्तावना को बदला गया। याचिका में यह कहा गया कि संविधान के मूल स्वरूप में इन शब्दों का उल्लेख नहीं था और इसे संविधान सभा ने भी स्वीकार नहीं किया था।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्द किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, जो संविधान के मौलिक ढांचे के विपरीत है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि:

  • संसद को पूरा अधिकार है कि वह संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करे, चाहे वह शब्द जोड़ने का हो या हटाने का।
  • 42वें संशोधन को चुनौती देने का आधार पर्याप्त नहीं है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि संसद संविधान संशोधन के लिए अनुच्छेद 368 के तहत पूरी तरह से अधिकृत है, और संशोधन प्रक्रिया में किसी प्रकार की असंवैधानिकता नहीं पाई गई।

याचिकाकर्ता और उनका तर्क

इस याचिका को बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी और अन्य ने दायर किया था। उन्होंने आपातकाल के दौरान किए गए संशोधन पर सवाल उठाते हुए कहा कि:

  1. समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को संविधान में जोड़ना संविधान के मूल ढांचे को बदलने का प्रयास था।
  2. इन शब्दों का समावेश भारतीय लोकतंत्र को एक विशेष विचारधारा से जोड़ता है, जो संविधान सभा की मंशा के खिलाफ है।

पृष्ठभूमि: 42वां संशोधन

1976 में इंदिरा गांधी सरकार के दौरान 42वें संविधान संशोधन के तहत ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द प्रस्तावना में जोड़े गए। इस संशोधन का उद्देश्य संविधान के मूल सिद्धांतों को मजबूत करना था।

  • इससे पहले संविधान की प्रस्तावना में भारत को केवल एक “संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य” कहा गया था।
  • संशोधन के बाद इसे “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” में बदल दिया गया।

विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया

इस फैसले के बाद संवैधानिक विशेषज्ञों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने संसद की विधायी संप्रभुता को मान्यता दी है। अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि संविधान में किसी भी बदलाव के लिए संसद की प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया कि संविधान की प्रस्तावना में किए गए बदलाव संसद के अधिकार क्षेत्र में आते हैं और इन्हें चुनौती देना तर्कसंगत नहीं है। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर आगे की बहस संसद के पटल पर ही संभव है।

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